लघुकथा -चलता पुर्जा

अभी 2 साल पहले की ही तो बात थी।

सरकारी नौकरी में संपर्क, व्यवहार से जो भी जुटा सको जुटा लेना चाहिए -वे इस बात पर पूर्ण विश्वास रखते थे। विभागाध्यक्ष के तौर पर सीधे भर्ती नहीं हुए थे। नौकरी करते-करते पीएचडी कर डॉक्टर बन बैठे थे। चाहते थे कि सबसे बड़ी ‘ग्रेड-पे’ के हकदार बन जाए। नियमों के अनुसार तो वे इसके लायक नहीं थे।

पैसे, चाटुकारिता ने रंग दिखलाया और ‘आउट ऑफ वे’ जाकर विभाग ने उन जैसों को लाभान्वित कर दिया। आज वही ‘ग्रेट-पे’ उनके गले में फांस बनकर अटक गया।

आदमियों की कमी, कामचोरी, ऊपर वालों की मनमानी की प्रवृत्ति के चलते उनकी संस्था के प्रमुख तनावग्रस्त हो गए। धीरे-धीरे अस्वस्थ भी होने लगे तो नौकरी छोड़ने का नोटिस दे दिया।

हायर ग्रेड-पे के कारण उस पद की जिम्मेदारी उन पर तो आनी थी। बैठे ठाले, बिना जिम्मेदारी के पगार मिल रही है तो फिर गधा मजूरी, तनाव, जिम्मेदारी कौन झेले! लाभ तो लेने के लिए ही होते हैं। जिम्मेदारियां थोड़ी लेनी होती है!!

वे फिर से संबंध, पैसे, चाटुकारिता का जाल बुनने लगे। उनकी भेजी आम की पेटियों ने असर दिखलाया। वे खास जिम्मेदार न बनकर ‘आम’ ही बने रहें । बलि का बकरा किसी और को बना दिया गया।

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आंखिन देखी,कागद लेखी

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